रविवार, 20 जुलाई 2008

एक विफल पीढी की राजनीति तो देखिये ....

मंहगाई की समस्या अब अस्थिर सरकार को बचाने की जुगत में पीछे छूट गई है ..प्रधानमंत्री की मंशा भी यही थी....लेकिन केवल प्रधानमंत्री को दोषी ठहराना ज्यादा उचित नहीं होगा...दरअसल यह हमारे लोकतंत्र में राजनीतिक मदुदों के चयन की गड़बड़ी का परिणाम है...लोक को गायब कर केवल तंत्र की राजनीति ने आज ऐसे मुद्दों को दबा दिया,जिससे कहीं पर मॉस जुड़ता था....यह मुद्दों का शिफ्टीकरण है...यानि मुद्दे सरोकारों वाले खांटी राजनीति से शिफ्ट करते हुए छद्मता की ओर जा चुके हैं....यदि ऐसा न होता तो प्रधानमंत्री को डील से ज्यादा,मंहगाई की चिंता होनी चाहिए थी....वाम पार्टियों का समर्थन वापसी का दबाव मंहगाई के मुद्दे या तेल के दाम बढ़ाने पर आया होता....और विपक्ष के तौर मौजूद भाजपा का भारत बंद अमरनाथ की समस्या पर न आकर मंहगाई पर आया होता....गौर कीजिए कि राजनीति का यह जो दौर है वह कितनी कुण्ठा पैदा करेगा...जब मंहगाई की मारी जनता को चुनावों के खोखले वादों को सुनना पड़ेगा..हमारी शीर्षस्थ संस्थाओं की राजनीतिक जिम्मेदारी का एहसास देखिए कि जब उन्हीं के जारी आंकड़े मंहगाई को 12 फीसदी के आस-पास दिखा रहे हैं....और तब देश के आका सरकार बचाने की आमंत्रित समस्या का समाधान खोजने की कसरत कर रहे हैं.... साथ ही आरोपों और प्रत्यारोपों को बीच हो रही साठ-गांठ ने पक्ष और विपक्ष के महीन अन्तर तक को मिटा दिया है...यह मिटता अन्तर सजग लोकतंत्र के लिए घातक है...क्योंकि लोकतंत्र के बने रहने का सिद्धान्त तो पक्ष और विपक्ष की पूरी सक्रियता और मुद्दों के सृजनात्मक विरोध पर आधारित माना गया है.....माना कि राजनीति में कोई दोस्त और दुस्मन नहीं होता है...पर मुद्दों को लेकर दोस्ती और दुस्मनी तो चलनी ही चाहिए...यह जनता के हितों को लेकर होना जरूरी है....न की सत्ता का स्वाद चखने के लिए अपने चुनावी वादों से मुकरना....अब तो चुनावी वादे केवल मतदान तक ही सक्रियता दिखाते हैं...बाद के समय में तो वादों पर छली जनता को भावनाओं पर उलझाते हैं..........
ऋषि कुमार सिंह

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है. नियमित लेखन के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाऐं.

वर्ड वेरिपिकेशन हटा लें तो टिप्पणी करने में सुविधा होगी. बस एक निवेदन है.