नत मस्तक भीष्म है ,द्रौपदी के दरबार में ,
तटस्थ हो कृष्ण रहे, हँसा शिखण्डी साथ में।
द्रोपदी के अठ्हास में,चीख का अहसास था,
कर्ण की नाद में,क्यों जन्म का अपराध था।
कुंती थी बाल खोले, डर-पश्चाताप था,
गर था अपराध कहीं तो, सूर्य उसमें भागीदार था।
चीख चीख कर पूछता है,द्रोण से एकलव्य यूं,
था धनुर्धर अर्जुन तो,क्या शिष्य होना अपराध था।
कान पीटता है युधिष्ठिर, दिन-रात क्यों,
द्रोण की मौत का,क्या कान जिम्मेदार था।
आंख खोले गान्धारी,था सुयोधन खम्भवत,
है खड़ा कोने में देखो,भाल ले धृतराष्ट्र क्यों।
घटोत्कच भी पूछता है,भानुमती के संग-संग,
रे छलिया माखनचोर,मेरा क्या अपराध था।
आज सबके सामने है,एक प्रश्न इतिहास का ,
क्या नग्न थी सारी मनुष्यता,और वह दौर भी।
ऋषि कुमार सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें